प्रिय छात्र/छात्राओं एवं कॉलेज के कर्मचारियों और शिक्षकगणों हम आप सबके अथक परिश्रम एवं कार्य से बेहद खुश है और तहदिल से शुक्रिया अदा करते है की कितने मनोवैज्ञानिक ढंग से सहज रूप में बच्चों की कुंठित भावनाओ में जागृति का घूँट पिलाकर अपना उत्तरदायित्व निभाया है। आप ऐसे मानवीय उद्देश्य के प्रति समर्पित ही नहीं बल्कि दृणसंकलिप्त भी है। जीवन का अँधेरा भी उसी पल से छटने-मिटने लगता है। जिस पल संवेदनाओ की लौ जल उठे। शरीर और मन की सारी शक्तियाँ उसे बढ़ाने, व्यापक बनाने में जुट जायें। फिर विषमताएँ और अवरोध उसे बुझा नहीं पाते।
टैगोर जी ने ऐसों के लिए ही लिखा हैं :-
यदि झड़वादले, आधार राते दुआर देवघरे।
तबे वज्रानले।
आपन बुकेर पांजर ज्वालिये लिए-एकला चलो रे।।”
अर्थात यदि प्रकाश न हो, झंझावत और मूसलाधार वर्षा की अँधेरी रात में जब अपने घर के दरवाजे भी तेरे लिए लोगो ने बन्द कर लिए हों, तब उस वज्रानल में अपने वृक्ष के पिंजरे को जलाकर उस प्रकाश में अकेला चलता चल।
कर्मवीर गाँधी जी के जीवन में एक दिन यही लौ धधक उठी। जल गये उसमें मान-सम्मान, महत्वाकांक्षाएँ, पद-प्रतिष्ठा, सभी-कुछ। उस समय वह दक्षिण भारत का दौरा कर रहे थे। रस्ते में देखा एक युवा लड़की फटी धोती से जैसे-तैसे अपना शरीर ढंके हुए थी। उसे धोती की जगह मेला-कुचला चिथड़ा कहना जयादा ठीक होगा। टोकरी उठाये चली जा रही उस लड़की को सभी ने देखा। इन दृष्टियों विकृति, उपेक्षा, वितृष्णा, सभी कुछ था, नहीं थी तो सिर्फ संवेदना। दृष्टि गाँधी जी की भी गयी। उनकी दृष्टि में बस यही एक थी बाकी कुछ न था। उसे पास बुलाया। क्यों बहन, तुम इस धोती को धोती क्यों नहीं? उसके फटे हुए हिस्से को सील क्यों नहीं लेती? प्रशन ने उसके अतीत, वर्तमान और आर्थिक अभावो को एक साथ कुरेद दिया। गहरे घावों को छू लेने पर जैसी पीड़ा होती हैं, वैसी ही पीड़ा उसकी आँखों में उमड़ी। जवाब था – कोई दूसरी धोती हो तभी तो धोऊँ, यह सिलने लायक हो, तब कहीं सिलूं। उत्तर सुनकर गाँधी जी का चेहरा शर्म से लाल पढ़ गया। जनता की यह दशा और जनता का सेवक कहलाने वाला में धोती-कुर्ता सभी से लेश…? इतना ही नहीं एक जोड़ी झोले में भी पड़े हैं। इससे अधिक शर्मनाक बात क्या होगी। उन्होंने झोले से चुपचाप धोती निकाली और उसकी और बढ़ाई– “लो बहन। इस अपने भाई की तरफ से स्वीकार करो। युवती ने हाथ बढाकर इसे स्वीकार कर लिया। कृतज्ञता और ख़ुशी के भाव उसके चेहरे पे झलक रहे थे। युवती गयी। गाँधी जी ने अपनी धोती को फाड़कर दो टुकड़े किए। आधा पहनने का आधा ओढ़ने का। यही बन गई उनकी चिरस्थायी पोशाक और एक क्षण में कर्मवीर गाँधी–महात्मा गाँधी बन गये।
मैंने उपरोक्त उदाहरण आप सबके सामने इसलिए प्रस्तुत किया कि यह विद्यालय जो ग्रामीण सुनसान अंचल में जो स्थापित कर मेरा भी यही उद्देश्य था कि गरीब तबके के छात्र/छात्रायें शिक्षा से वंचित न रहे जाए।